विसर्जन व उत्सर्जन

विसर्जन और उपार्जन इन दो पहलुओं को समझने की कोशिश करूँगा। ब्रह्माण्ड में पृथ्वी या सौरमंडल की उत्पत्ति विसर्जन या विघटन या विस्फोट/बिगबैंग का ही नतीजा हैं जैसा कि सुना व कहा जाता है। इस विसर्जन के बाद ही उत्पत्ति या निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ। जो निरतंर अपनी प्रगति पर है। साथ ही विसर्जन का सिलसिला भी बदस्तूर हम अपने चारों देख सकते है। क्रमशः यह कर्म का ही एक रूप है जो निरन्तर हमारे शरीर के भीतर और बाहर चल रहा है। शरीर के भीतर का कर्म अपने आप अपना कार्य व्यवस्थित तरीके से कर रहा है इसे हम अच्छी तरह से अनुभव कर सकते है। शरीर मे भौतिक रूप से इसका विघटन व उत्सर्जन कई पहलुओं से हम महसूस भी कर सकते है व देख भी पाते हैं मगर क्या विचारो में हो रही विसर्जन व उत्सर्जन की इस प्रक्रिया को हम पकड़ व पहचान पा रहे है यह एक बड़ा सवाल है।
किसी भी तरह के कर्म से पहले विचार आते हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि विचार ही हमारे कर्मो को निर्धारित करता है। इसलिए विचारो में स्पष्टता व जागरूकता का होना अनिवार्य होना ही चाहिए इसके लिए पर्याप्त समय भी देना चाहिए। आप चाहे न चाहे यह अपना काम करता ही रहता है। पर क्या वह मेरे अनुसार हो रहा है या अपने आप। इसका विश्लेषण होना चाहिए।कँही विचार मुझे अपने भावावेश में जकड़े ऐसी परिस्थिति में तो नही लिए जा रहा है जँहा में नही जाना चाहता।

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