सांसो के उतार चढ़ाव को अगर समझने की कोशिश करें तो आप जान सकते है।इसके अलग अलग पहलुओं को जैसे दौड़ने के समय साँसों का रिधम दौड़ की गहराइयों के साथ बदलता जाता है। ऐसे ही आपकी हरएक शारीरिक गतिविधियों के साथ साँसों का रिधम भी अलग होता है। इसी तरह से मानसिक व भावनात्मक गतिविधियों के साथ बदलते साँसों के रिधम को भी देखा व अध्ययन किया व जाना जा सकता है यह बहुत ही शुक्ष्म होते है इन रिधम की तरंगों को पकड़ने के लिए अभ्यास व थोड़ी ज्यादा सजगता की जरूरत है।सोते समय आपके पास ज्यादा समय है कि आप इसे जान व इन के तरंगों के साथ खेल सके। सांस ही हमारे जीवन का मूल आधार है। जैसे जैसे आप इसका अध्ययन करेंगे वैसे वैसे आपकी सजगता बढ़ेगी जीवन के सभी पहलुओं के प्रति जगरूकता व स्पष्टता भी बढ़ेगी। और जानने की जिज्ञासा भी बढ़ेगी।
साँसों को जानने की जरूरत तो असल मे कही दिखाई नहीं देती। यह तो अपने आप अपना काम कर रहा है तो मुझे विशेष ध्यान देने की जरूरत क्यों है। और ऐसा भी नही है कि यह सही से काम नही कर रहा हैं। तो भी समझ मे आये की कूछ किया जाये।
यही कारण है कि इसमें विशेष ध्यान देने की जरूरत है। हम अक्सर उसके प्रति बेरुखी दिखाते हैं जो हमे आसानी से उपलब्ध होता हैं यह सही नहीं है।
आइये बोलना सीखे। हम हमेशा चाहते है कि कुछ न कुछ बोले चाहे कोई सुनने के लिए हो जा न हो। कोई सुनने वाला भी इसीलिए सुनता है कि कब यह महाशय रुके या न भी रुके तो भी अपने बोलने के इंतजार में रहता है। या बीच मे ही पूरी बात सुन बिना ही अपनी बातो को थोपना शुरु करता है और इस उधेड़बुन में रहता है कि इसके विपरीत में कैसे तथ्यों को कहु ताकि मैं ज्यादा बुद्धिमत्ता साबित कर सकू। अगर कोई सुनने के लिए नहीं है तब भी हम स्वयं से बोलते रहते है। यह सही नही है इसका कोई उपाय खोजना चाहिए। बोलने की गुणवत्ता और उसकी जरूरत या सार्थक होना अनिवार्य होना चाहिये। क्या ऐसा हम कर पाते है। यह तभी सम्भव है जब हम अपने को जानने की अनभिज्ञता जाहिर करें।दूसरे के जानने को महत्व दे। और धर्य के साथ सुने। कम शब्दों में कैसे अपनी बातों को कहे। इस रचनात्मक कला का विकास करे। www.kuchalagkare.in
आप आगे बड़े न बड़े आप कुछ सोचे न सोचे पर घड़ी की टिक टिक कभी बन्द न होगी यह बड़ती ही जाएगी। इसलिए मैंने सोचा हैं मैं भी न रुकूंगा मैं भी बड़ता ही जाऊंगा आगे। चाहे किसी को समझ में आए न आए मुझे भी घड़ी की तरह बस बड़ते जाना हैं। यह कैसी विडम्बना है कि हमने जाना हैं कि वर्तमान में ही जीवन है। पर लिखने के लिए आपको भूत और भविष्य की ओर देखना ही पड़ता हैं। लाकडाउन के 21दिनों में इससे ज्यादा उपयोगी कुछ और नहीं हो सकता। आज लोकडॉउन का 11 वां दिन है। इन दिनों में घटित घटनाओं को भी शब्दों में पिरोया जा सकता हैं। वे भी वर्तमान से परे ही होगा। पल प्रति पल मैं भूत और भविष्य के बीच विचरण करता हूं वर्तमान तो क्षण भंगुर हैं उसे पकड़ पाना या शब्दों में पिरोना तो सम्भव नहीं है। जब भी मैं वर्तमान को जानने की कोशिश करता हूं तो सासो की गतिशीलता को ही देख पाता हूं। पर इसमें तो कोई आनंद नहीं झलकता। हां एक मुस्कुराहट जरूर आ जाता हैं। शरीर के तनाव का पता चलता हैं। बस इतने के लिए मुझे वर्तमान में रहना चाहिए। पर मुझे इससे ज्यादा चाहिए। कितना ज्यादा मुझे यह नहीं पता पर मुझे चाहिए। हर दिन नया विचार नई भावनाए नया मौ
प्रेम एक शब्द नहीं अपितु अद्भुत अहसास हैं जिसमें संवेदनाओं का ज्वार भाटा पल प्रतिपल झूमता और खिलखिलाता रहता हैं। जीवंतता का इससे ज्यादा समग्र अनुभूति कही ओर से नहीं मिल सकता। प्रेम के बिना जीवन लगभग वैसा ही है जैसे ईंधन के बिना गाड़ी। प्रेम के कई रूप हैं स्नेह, ममत्व,प्यार और दुलार। इन सब का सम्बन्ध रिश्तों के अलग अलग स्वरूप में है। पर प्रेम इनके केन्द्र में हैं प्रेम के प्रवाह को इन सभी स्वरूप में उसी तरह महसूस किया जा सकता हैं। जब प्रेम बहता है। तब उसके उल्लास को। जीवंतता को हर कोई स्पर्श कर सकता हैं पल प्रतीपल झूमता खिलखिलाता प्रेम बढ़ता ही जाता हैं लेकिन प्रेम के प्रवाह को समाज कि कुरीतियों ने लगभग रोक ही दिया है। जिसका परिणाम है आज का विकृत मानसिकता वाला समाज। जिसमें संवेदनाओं की जीवंतता की उल्लास और आनन्द की कोई झलक नहीं दिखाई देती। प्रेम को सीमा में नहीं बांधा जा सकता। लेकिन शुरुआती प्रेम रिश्तों से ही अलौकिक होता हैं। प्रेम का वास हृदय में हैं। और हृदय का सम्बन्ध रिश्तों से हैं। अगर हम रिश्तों को संजोए रखने में सफल होते हैं। तब प्रेम कि पाठशाला में दाखिला तो सुनिश्चित हो ही
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