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नौकरी

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नौकरी करना मुझे नहीं लगता कोई सम्मान जनक हैं। मेरा मानना है कि नौकरी का अभिप्राय नौकर से है और नौकर का अभिप्राय रामू काका से जो कंधे पर गमछा लिए थोड़ा सा झुके हुए नजरो को झुकाए मालिक के दाएं बाएं खड़े हो। ऐसी नौकरी का चले जाना या छोड़ देना आज़ादी या साहस का ही परिचय हो सकता है। लेकिन कई मूर्ख है जो इसे सम्मान का या रोजी रोटी के छीन जाने से तुलना कर लेते हैं। और उदासीन या मायूसी के अंधेरे में चले जाते हैं। तब उनका ढोंग सामने आ जाता हैं कि भगवान पर उनका अटूट विश्वास हैं।  यह समय हैं। सही मायने में खुद को और भगवान को परखने का कि किसका वजूद ज्यादा मजबूत हैं। वैसे तो होना यह चाहिए था कि आप पहले से ही इस नौकरी को असुरक्षित महसूस करते जिस तरह यह जीवन कभी भी सुरक्षित नहीं हैं। जिस तरह आपको ज्ञात हैं कि जीवन नहीं हैं तो मृत्यु है ठीक उसी तरह आपको मालूम होना चाहिए था कि नौकरी नहीं तो क्या। कई लोग होंगे जिन्हें मालूम होगा कि इसके बाद क्या उन्हें मेरी शुभ कामनाएं। पर जिनके पास ऑप्शन बी नहीं हैं। उनके लिए मेरी सलाह हैं वे इसे संभावनाओं या अवसर की तरह लेे। अपने परिवार के साथ बैठे उन्हें अवगत कराए नए