बोलने की कला

आइये बोलना सीखे। हम हमेशा चाहते है कि कुछ न कुछ बोले चाहे कोई सुनने के लिए हो जा न हो। कोई सुनने वाला भी इसीलिए सुनता है कि कब यह महाशय रुके या न भी रुके तो भी अपने बोलने के इंतजार में रहता है। या बीच मे ही पूरी बात सुन बिना ही अपनी बातो को थोपना शुरु करता है और इस उधेड़बुन में रहता है कि इसके विपरीत में कैसे तथ्यों को कहु ताकि मैं ज्यादा बुद्धिमत्ता साबित कर सकू। अगर कोई सुनने के लिए नहीं है तब भी हम स्वयं से बोलते रहते है। यह सही नही है इसका कोई उपाय खोजना चाहिए। बोलने की गुणवत्ता और उसकी जरूरत या सार्थक होना अनिवार्य होना चाहिये। क्या ऐसा हम कर पाते है। 
यह तभी सम्भव है जब हम अपने को जानने की अनभिज्ञता जाहिर करें।दूसरे के जानने को महत्व दे। और धर्य के साथ सुने। कम शब्दों में कैसे अपनी बातों को कहे। इस रचनात्मक कला का विकास करे।www.kuchalagkare.in

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