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विसर्जन व उत्सर्जन

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विसर्जन और उपार्जन इन दो पहलुओं को समझने की कोशिश करूँगा। ब्रह्माण्ड में पृथ्वी या सौरमंडल की उत्पत्ति विसर्जन या विघटन या विस्फोट/बिगबैंग का ही नतीजा हैं जैसा कि सुना व कहा जाता है। इस विसर्जन के बाद ही उत्पत्ति या निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ। जो निरतंर अपनी प्रगति पर है। साथ ही विसर्जन का सिलसिला भी बदस्तूर हम अपने चारों देख सकते है। क्रमशः यह कर्म का ही एक रूप है जो निरन्तर हमारे शरीर के भीतर और बाहर चल रहा है। शरीर के भीतर का कर्म अपने आप अपना कार्य व्यवस्थित तरीके से कर रहा है इसे हम अच्छी तरह से अनुभव कर सकते है। शरीर मे भौतिक रूप से इसका विघटन व उत्सर्जन कई पहलुओं से हम महसूस भी कर सकते है व देख भी पाते हैं मगर क्या विचारो में हो रही विसर्जन व उत्सर्जन की इस प्रक्रिया को हम पकड़ व पहचान पा रहे है यह एक बड़ा सवाल है। किसी भी तरह के कर्म से पहले विचार आते हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि विचार ही हमारे कर्मो को निर्धारित करता है। इसलिए विचारो में स्पष्टता व जागरूकता का होना अनिवार्य होना ही चाहिए इसके लिए पर्याप्त समय भी देना चाहिए। आप चाहे न चाहे यह अपना काम करता ही रहता है। पर क्य

रिधम

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सांसो के उतार चढ़ाव को अगर समझने की कोशिश करें तो आप जान सकते है।इसके अलग अलग पहलुओं को जैसे दौड़ने के समय साँसों का रिधम दौड़ की गहराइयों के साथ बदलता जाता है। ऐसे ही आपकी हरएक शारीरिक गतिविधियों के साथ साँसों का रिधम भी अलग होता है। इसी तरह से मानसिक व भावनात्मक गतिविधियों के साथ बदलते साँसों के रिधम को भी देखा व अध्ययन किया व जाना जा सकता है यह बहुत ही शुक्ष्म होते है इन रिधम की तरंगों को पकड़ने के लिए अभ्यास व थोड़ी ज्यादा सजगता की जरूरत है।सोते समय आपके पास ज्यादा समय है कि आप इसे जान व इन के तरंगों के साथ खेल सके। सांस ही हमारे जीवन का मूल आधार है। जैसे जैसे आप इसका अध्ययन करेंगे वैसे वैसे आपकी सजगता बढ़ेगी जीवन के सभी पहलुओं के प्रति जगरूकता व स्पष्टता भी बढ़ेगी। और जानने की जिज्ञासा भी बढ़ेगी।  साँसों को जानने की जरूरत तो असल मे कही दिखाई नहीं देती। यह तो अपने आप अपना काम कर रहा है तो मुझे विशेष ध्यान देने की जरूरत क्यों है। और ऐसा भी नही है कि यह सही से काम नही कर रहा हैं। तो भी समझ मे आये की कूछ किया जाये। यही कारण है कि इसमें विशेष ध्यान देने की जरूरत है। हम अक्सर उसके प्रति

लेन देन की प्रक्रिया

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प्रकृति ने हमे वो सब कुछ दिया जिसकी हमे जरूरत थी मेरा मानना है उसने देने मे कोई कंजूसी नही की पर हमने उस तरह से लौटाया नही। यही सब गड़बड़ हो गई। आपके इर्दगिर्द या आपके साथ कुछ ऐसा हो रहा है। जो आपको अच्छी अनुभूति नही दे रहा है। तो आपको वो सब लौटाना होगा जो भी प्रकृति ने आपको दिया है। बल्कि उससे कहीं ज़्यादा लौटाना होगा। यह जीवन लेन देन की एक प्रकिया है। आपको जितना मिलना चाहिए था पूरा पूरा मिला। लेकिन आपने उसे इकट्ठा कर लिया या उसे प्रकृति को लौटाया नही। तो आपने प्रकृति के नियम को तोड़ा है नियमों को तोड़ने पर सजा जरूरी है। वह चारो ओर दिख रहे गलत उसका परिणाम है। एक अद्भुत शरीर परिश्रम और भोग के लिए। बुद्धिमत्ता विचार और समझ के लिए। ह्रदय स्नेह और प्रेम के लिये। मन भावनाओं के स्पंदन को महसूस करने के लिए। इन सभी का इस्तेमाल करने में आप कंजूसी नही कर सकते। यह जितना ज्यादा विस्तृत होगा उतना ही बढेगा। और जितना समेटा जाएगा यह उतना दुविधा देने वाला है। www.kuchalagkare.in

बोलने की कला

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आइये बोलना सीखे। हम हमेशा चाहते है कि कुछ न कुछ बोले चाहे कोई सुनने के लिए हो जा न हो। कोई सुनने वाला भी इसीलिए सुनता है कि कब यह महाशय रुके या न भी रुके तो भी अपने बोलने के इंतजार में रहता है। या बीच मे ही पूरी बात सुन बिना ही अपनी बातो को थोपना शुरु करता है और इस उधेड़बुन में रहता है कि इसके विपरीत में कैसे तथ्यों को कहु ताकि मैं ज्यादा बुद्धिमत्ता साबित कर सकू। अगर कोई सुनने के लिए नहीं है तब भी हम स्वयं से बोलते रहते है। यह सही नही है इसका कोई उपाय खोजना चाहिए। बोलने की गुणवत्ता और उसकी जरूरत या सार्थक होना अनिवार्य होना चाहिये। क्या ऐसा हम कर पाते है।  यह तभी सम्भव है जब हम अपने को जानने की अनभिज्ञता जाहिर करें।दूसरे के जानने को महत्व दे। और धर्य के साथ सुने। कम शब्दों में कैसे अपनी बातों को कहे। इस रचनात्मक कला का विकास करे। www.kuchalagkare.in

मुस्कुराहट

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kuchalagkare.in जंगल या पेड़ों के इर्द गिर्द खेलते बच्चे खेल में मशगूल है। चाहे जितने भी मदमस्त हो अपनी मस्ती में पर उन्हें इस बात का भी ख़्याल है की बाबा के आने का समय हो गया है और इस बात का ख़्याल जैसे ही कौंधती है घर की तरफ दौड़ कर बाबा या माँ के आने से पहले ही घर पहुंच जाते है। बाबा को पानी भर के गिलास जो देना है। और एक मुस्कुराहट। बस इतना ही तो करना बाबा के थकान भरे चेहरे पर एक मुसुकरहट पसीने से भरे चेहरे पर हल्की सी झलक खुशी की मिल जाये बस इतना ही तो करना है दिन भर में। क्या यह आज के बच्चे कर रहे है माँ बाप के लिए संभवतः नही। यह विषय मजबुर करता है कि हम जाने की किस दिशा में व कैसे समाज का निर्माण करने में लगे है।यहाँ मूल्यवान वस्तुओं के लिये बहुमूल्य को खोते व समाप्त करते जा रहे है। पर मैं तो खुश हूं। अपनी जिंदगी से क्योंकि मेरे पास वो सब कुछ है जो जीने के लिये जरूरी है। जंहा तक मैंने जाना है जीने के लिये जो जरूरी है वो सब तो ईश्वर द्वारा फ़्री है।उसके लये कुछ करने की जरूरत हैजैसे हवा,पानी,पृथ्वी,आग/सूर्य और आकाश

परमानंद

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मेरे बच्चे अगर किसी दिन नाराज़ होकर कह दे। मुझे भूख नही है मैं नही खाता। तो शायद मेरा बी पी हाई हो जाय या मैं भी भोजन को देख हिचकिचाहट महसूस करू। लेकिन मुझे इस बात की ख़बर भी नही रहती की मेरे पड़ोसी ने खाना बनाया भी है या नही। भोजन तो खैर सभी बंद दरवाजों के पीछे ही करना पसंद करते है। इन्हें इंगित करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि अगर इस दुनिया मे एक भी इंसान क्या जानवर भी भूखा है कहीं तो हमारा खाना हराम है। अरे बाप रे तब विकट परिस्थिति खरी हो जायेगी।  नही। यह करुणा का आधार है। क्या हमें अहसास है। कोई कंही भूखा तो नही।हे ईस्वर ऐसा नही होना चाहिए। मैं दो रोटी कम खा लूँगा। तू भूखा जगाता जरूर है पर किसी को भूखा सुलाता नही। यह श्रद्धा है। उस महान ऊर्जा के प्रति जिसने हम सबकी रचना की ऐसा मानना ही भक्ति है। और भक्ति ही हमे इस पीड़ा में भी आनंद दे सकता है ऐसी स्थिति हमेशा आपके जीवन मे बनी रहे तो परमानंद है। kuchalagkare.in

मैं और ब्रह्माण्ड

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kuchalagkare.in संसार की सबसे छोटी इकाई है मेरा स्वयं का वजूद। उसके बाद मेरा परिवार तब समाज और उसके बाद देश और ब्रह्मांड।अहं ब्रह्म अस्मि।मैं ही ब्रह्म हूँ।मेरा अस्तित्व भी इसी ब्रह्मांड से है। ब्रह्म और ब्रह्मांड दोनों एक दूसरे में समाहित है। इसका तातपर्य मुझमे और इस ब्रह्मांड में फ़र्क करना बेमानी है। फिर इतना अंतर्विरोध कैसे दिखाई पड़ता है। विश्लेषण करने की जरूरत इसी बात को लेकर होना चाहिए। जानना चाहिए कि इतने गहरे सम्बंध होने के बावजूद एक रसता क्यो महसूस नही होती। इसका मूल कारण है। धोखा। जो जाने अनजाने में हम स्वयं को देते है। दुसरो को अपने से अलग समझना ही हमारी दुविधा का कारण है कि हम इस सृष्टि से अलग है यही हम जानते मानते रहे। यही हमारी अज्ञानता और दुख का कारण है।